वैक्सीन पर तू..तू..मैं..मैं ! देखिये, #SpecialReport अंजना ओम कश्यप के साथ। #ATLivestream

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#मरा_ हुआ मुर्दा#

गंगा में तैरती हुई एक लाश ने दूसरी से पूछा;
अरे आप भी? आप कब मरे?
मुर्दा कुछ गम्भीर होकर बोला,
दोस्त , जिंदा ही कब थे हम?
बहुत पहले ही तो मर चुके थे हम।

जब चुप चाप देख रहे थे नजारा,
जब कोई हक लूट रहा था हमारा;
कब बोले थे, कब उठे थे अधिकारों के लिए हम,
दोस्त, जिंदा ही कब थे हम?

जब जरूरत थी देश को,
स्कूल,अस्पताल और काम की,
हम बातें कर रहे थे मंदिर, मस्जिद और पाकिस्तान की;
जात-पात और धर्म के नशे में चूर थे हम;
दोस्त, जिंदा ही कब थे हम?

किसान मजदूर सड़क पर था,
अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा था;
जब देश का हर एक संस्थान,
कोड़ी के दाम बिक रहा था;
हो रहा था जुल्म बुद्धिजीवियों पर;
किसी कोने में बैठे,
खिलखिला रहे थे हम;
दोस्त ,जिंदा ही कब थे हम?

जब बेरोजगार, काम के लिए भटक रहा था,
जब मरीज अस्पतालों के बीच मे ही लटक रहा था,
जब पीटे जा रहे थे विद्यार्थी,
लगाकर झूठे देश द्रोह के जुर्म,
दोस्त, जिंदा ही कब थे हम?

जिंदापन्न तो एक नाटक था,
कितने लम्बे समय से नफरत का जहर निगल रहे थे हम,

दोस्त, जिंदा ही कब थे हम?

कभी ताली, कभी थाली, तो कभी दीए जला रहे थे ,
ऐसे नाटकों से क्रोना को भगा रहे थे;
जब लेनी थी दवा, तब गोमूत्र पी रहे थे ,
जब एकांत में रहना था,
तब रैलियों में जा रहे थे हम;
दोस्त, जिंदा ही कब थे हम?
जब अस्मत लूटने वाले छूट रहे थे,
पीड़िताओं पर मुकद्दमे हो रहे थे,
जब बलात्कारियों के समर्थन में जलूसों पर चुप बैठे थे हम;
दोस्त, जिंदा ही कब थे हम?
बस फर्क सिर्फ इतना ही है;
अब रुकी है, तब चल रही थी सांसे;
हम जिंदा भी मुर्दे थे,
आज बस मरे हुए मुर्दे हैं हम,
दोस्त, जिंदा ही कब थे हम?
और जो खुद को जिन्दा कह रहे
वह भी मुर्दे है,
जो मरने पर हमारे लिये स्वर्ग में ब्राह्मण से पट्टा लिखवा रहे,
डॉक्टर इंजीनियर वकील अधिकारी प्रोफेसर खुद को कहते है ,मुर्दे है जो जिन्दा होने का नाटक कर रहे है !
जिन्दा होकर भी
हम भी मुर्दे थे बस आज मरे है!!