1ºगरीब, बैराग नाम है त्याग का, पांच पचीसों संग।
ऊपर की कंचली तजी, अंतर विषै भुवंग।।
सरलार्थ :-
शरीर की पच्चीस प्रकृति अपना प्रभाव शरीर (पाँच तत्व के पूतले) पर जमाए रखती है। माता-पिता का स्वभाव भी शरीर में प्रभाव दिखाता है क्योंकि उन्हीं के पदार्थ (बीज) से अपना शरीर बना है। अच्छे स्वभाव के माता-पिता से शरीर बना है तो भक्ति में सहयोगी होता है। यदि शराबी कवाबी, चोर, रिश्वतखोर, डाकू से शरीर मिला है (जन्म हुआ है) तो उसका प्रभाव भक्ति में बाधा करता है। उससे संघर्ष करते हुए तत्वज्ञान को आधार बनाकर बिरह (वैराग्य) को बनाए रखें। इसे कहा कि बैराग नाम है त्याग का, शरीर की प्रकृति से संघर्ष करते हुए इन्हीं पाँच-पच्चीस में रहते हुए भक्ति की भावना बनी रहे। यदि ऐसा नहीं है तो ऊपर की कॉचली (सर्प की केंचुली) की तरह शरीर के वस्त्र बदल लेने मात्र से बैरागी नहीं बन जाता। अंदर सब विकार विद्यमान हैं। जैसे जनताजन अपने क्षेत्र में प्रचलित वस्त्र धारण करते है। यदि कोई भक्ति के लिए किसी पंथ से जुड़ता है, साधु बनता है तो उसको संसारिक वस्त्र उतारने पड़ते हैं तथा उस पंथ वाले भगवा वस्त्र धारण करने पड़ते हैं। यदि उसको तत्वज्ञान नहीं है तो वह नकली त्यागी है। उसमें विकार (काम, क्रोध, अहकार, लोभ, मोह) यथावत बने रहते हैं। उसके विषय में कहा है कि ऊपर की काँचली तजी (वस्त्र बदलकर बाबा बन गया अंदर विषय (विकार) रूपी भुवंग (भुजंग) यानि सर्प यथावत है। वह त्याग नहीं है।
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