1ºKamal Chhabarwal सबसे पहले कृष्णजी ने सुदामा की लड़की को भात दिया था, प्रथा चली आ रही है।
भात या मायरे की प्रथा में विवाह के सुअवसर पर मातुल पक्ष के लोग कुछ उपहार ले कर प्रस्तुत होते हैं। ये उपहार सामान्यतः वस्त्र,आभूषण या नकदी के रूप में होते हैं। सामर्थ्य श्रद्धा अनुसार।
लेकिन उपहार और सहायता के नाम पर चली ये परम्परा प्रतिष्ठा का प्रश्न बनते हुए मध्यकाल में महिलाओं के लिए गले की फांस बन गयी थी। जब तक मायके से मायरा आ न जाए (अच्छे भले उपहारों के साथ), तब तक ना तो नारी चिंता मुक्त हो पाती थी और ना ही कुल कुटुम्ब उसे चैन से सांस लेने ही देता था। भात में कितने पैसे आए, कौन कौन से आभूषण आए, किस भाँति के वस्त्र आए इत्यादि प्रश्नों के उत्तर आने वाले कई दिन-महीनों-सालों तक ससुराल में नारी की प्रतिष्ठा और महत्त्व को निर्धारित करते थे। भात कम आने का अर्थ ही जहाँ जीवन भर सास-ननद, देवरानी-जेठानी आदि के ताने हुआ करता हो, वहाँ भात नहीं आने पर क्या हाल हो सकता है, कल्पना सहज ही की जा सकती है।